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कुछ महीने पहले मोदी-योगी के बीच हुई खींचतान, लेकिन अब सब कुछ सही?

कोरोना (COVID-19) की दूसरी लहर के दौरान योगी (Yogi Adityanath) की मोदी-शाह (PM Modi-Amit Shah) के साथ अनबन की खबरें आई थी, कुछ ने तो कहा था कि योगी को हटाया भी जा सकता है, लेकिन चुनावों (UP Assembly Elecyion 2022) से पहले एकदम सब कुछ सही कैसे हो गया.

जब इस साल पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव हो रहे थे, उस दौरान पूरा देश कोरोना की दूसरी लहर का सामना करन रहा था. 2 मई को पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनावों के नतीजे आए और ममता बनर्जी की पार्टी (टीएमसी) अपने दम पर बहुमत का आंकड़ा पार कर गई. मई और जून देश के लिए काफी भारी रहे. लगभग हर राज्य से इस तरह की तस्वीरें आती रहीं कि कैसे लोग बिना ऑक्सीजन के मरते रहे. तस्वीरों के माध्यम से यह भी सामने आया कि दिल्ली से लेकर लखनऊ तक शमशान घाटों पर शवों के अंतिम संस्कार के लिए लंबी-लंबी कतारें रही. शायद यह भी कम बुरा नहीं था कि उत्तर प्रदेश से गंगा में तैरती लाशें और नदी किनारे कुत्तों द्वारा शवों को नोचने की तस्वीर भी सामने आई.

कोरोना की दूसरी लहर के दौरान की एक तस्वीर. फोटो साभार- ट्वीटर

इन सबके बीच एकदम से एक दिन खबर आती है कि केंद्र सरकार कोरोना की दूसरी लहर के दौरान योगी सरकार द्वारा किए गए काम से खुश नहीं हैं. इसके बाद वो तमाम खबरें मीडिया में सुर्खियां बनाती रहीं कि कैसे योगी के जन्मदिन पर मोदी द्वारा उन्हें ट्विटर पर बधाई नहीं दी, लखनऊ आए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सर-कार्यवाह दत्तात्रेय होसबाले योगी से मिलने के लिए दो दिनों तक इंतजार करते रहे, लेकिन उनसे योगी मिले नहीं, इसके बाद प्रधानमंत्री नरेद्र मोदी के 18 साल से भरोसेमंद रहे और रिटायर्ड आईएएस अफसर अरविंद कुमार शर्मा को योगी कैबिनेट में जगह नहीं मिली.

राजनीतिक विश्लेषकों ने लिखा कि योगी, मोदी-शाह की मजबूत जोड़ी के सामने भी, मजबूती से खड़े रहे. योगी ना सिर्फ खड़े रहे बल्कि उन्होंने वो मोदी और शाह की जोड़ी पर 20 साबित हुए. वहीं योगी के दिल्ली दौरे के बाद विश्लेषकों का मानना कि मोदी-अमित शाह की जोड़ी योगी के सामने झुक गई.

उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों से पहले एकदम से सब कुछ सही नजर आने लगा. पीएम मोदी के योगी के कंधे पर रखी तस्वीर आना, मोदी और योगी का कई कार्यक्रमों में एक-साथ दिखना, मोदी द्वारा योगी के लिए ‘यूपी+योगी= उपयोगी’ का नारा देना और पीएम द्वारा पूर्वांचल में लगातार दौरे करना और हर रैली में योगी सरकार के काम की तारीफ करना, इन सब बातों के कारण कई सवाल खड़े होते हैं. सबसे बड़ा सवाल तो यही है कि क्या योगी और मोदी के बीच सब कुछ सही हो चुका है. क्या पूरी बीजेपी उत्तर प्रदेश में एक होकर चुनाव लड़ रही है.

ध्यान भटकाने के लिए प्लांट की गई खबरें?

मई और जून के दौरान जब देश कोरोना की दूसरी लहर का सामना कर रहा था, उत्तर प्रदेश के हर कोने से अव्यवस्था की तस्वीर सामने आ रही थी. खबरें भी आई कि सरकार ने कोरोना से निपटने के बजाए, तस्वीरों से निपटना ज्यादा जरुरी समझा. 26 मई को पत्रिका ने एक खबर प्रकाशित की “कोरोना दूसरी लहर के बीच सीएम योगी ने 26 दिनों में 40 जिलों का किया दौरा, जानी जमीनी हकीकत”. इसी दौरान एक वीडियो भी सोशल मीडिया पर खूब वायरल हुआ जिसमें स्थानीय पत्रकारों ने अधिकारियों के दावों और जमीनी हकीकत के बीच की सही तस्वीर सीएम योगी के सामने पेश करनी चाही, लेकिन योगी बिना सुने साफ कह गए कि सब कुछ सही है. योगी ने दौरे तो किए लेकिन जमीनी सच्चाई से मुहं मोड़ते हुए नजर आए और मीडिया में लगातार कोरोना की अव्यवस्था से जुड़ी खबरें आती रहीं.

पीएम मोदी और योगी आदित्यनाथ एक कार्यक्रम के दौरा. फोटो साभार- ट्वीटर

ऐसे में सवाल होता है कि क्या जुलाई और अगस्त के दौरान योगी और मोदी के बीच तनाव की खबरें सिर्फ इसीलिए आई कि मीडिया और लोगों का ध्यान कोरोना की अव्यवस्था से हट सके. अगर इसका जवाब हां है तो बीजेपी अपनी इस रणनीति में कामयाब हुई, यह कहना गलत नहीं होगा.

योगी के सामने सब मजबूर या बात कुछ और है ?

लेकिन अगर इसका जवाब ना है कि तो फिर सवाल पैदा होता है कि आखिर कुछ महीनों में ऐसा क्या हो गया कि मोदी सब कुछ भुलाकर योगी की ना सिर्फ तारीफ कर रहे हैं बल्कि लगातार आगे रहकर चुनावी कमान संभाले हुए हैं. इसका जवाब हो सकता है कि बीजेपी चुनाव पूरी तैयारी से लड़ना चाहती हो और चुनावों से पहले इस तरह का कोई संदेश नहीं देना चाहती हो कि उसके अंदरखाने कुछ भी सही नहीं है.

योगी की अपनी एक छवी है, कट्टर हिंदुत्व वाली और उससे जुड़ा वोटबैंक सिर्फ योगी के नाम पर ही वोट करेगा, बीजेपी यह बात अच्छी तरह जानती हैं, ऐसे में बीजेपी चुनावों से पहले कोई खतरा नहीं मोल लेना चाहती हैं. बीजेपी की कोशिश है कि वो मोदी को आगे करके वोट हासिल करे और योगी, मोदी के बाद सबसे मजबूत नेता दिखाई दें और योगी की उस छवी का इस्तेमाल करके चुनावों के दौरान उसका फायदा उठाए. यह भी संभव हो कि बीजेपी का केंद्रीय नेतृत्व चुनाव परिणामों के आधार पर योगी पर कोई फैसला ले.

हमेशा चुनावी मोड में रहने वाली बीजेपी से चुनावों में किसी भी कारण के चलते चुनावों को गंभीरता से नहीं लेने का संदेश आना बेईमानी है. वो भी ऐसी सूरत में जहां, लगभग यह साफ हो चुका है कि इस बार यूपी का चुनाव वन-ऑन-वन हो रहा है. वैसे भी इस साल हो रहे उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव कई मायनों में महत्वपूर्ण है. बीजेपी कतई नहीं चाहेगी कि वो 2024 के लोकसभा चुनावों से पहले यूपी जैसे बड़े राज्य को गंवा दे. हालांकि, सवाल फिर भी उठता है कि क्या पीएम मोदी, यह सब कुछ आसानी से भूला देंगे या यह चुनावी मजबूरी है और पीएम, बीजेपी और संघ चाहकर भी योगी पर कोई फैसला नहीं ले सकते.

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क्या नरेंद्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी बीजेपी पर अपना प्रभाव खोती जा रही है?

पी. के. मिश्रा को योगी पर लगाम लगाने के लिए भेजा गया है, लेकिन योगी सीधी टक्कर में केंद्रीय नेतृत्व पर भारी पड़े.

पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनावों के परिणाम और कोविड-19 की दूसरी लहर के बाद बीजेपी के अंदर बगावती सुर तेजी से उभर रहे हैं जो कई आशंकाओं को जन्म देने का काम कर रहे हैं. पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनावों से पहले तक कोई यह सोच भी नहीं सकता था कि मोदी और शाह ऐसी स्थिति में आ जाएंगे कि पार्टी पर उनकी पकड़ कमजोर नहीं बल्कि खोने तक की बातें होने लगेंगी.

2 मई को बंगाल विधानसभा चुनावों के नतीजे आए थे और 31 मई तक आते-आते बीजेपी के राष्ट्रीय महासचिव बी.एल.संतोष उत्तर प्रदेश सराकर के मंत्रियों और राज्य के बीजेपी विधायकों से अलग-अलग बैठकें करके सरकार और मुख्यमंत्री के कामकाज का हिसाब-किताब ले चुके थे. उसी हफ्ते राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सर-कार्यवाह दत्तात्रेय होसबाले ने पहले दिल्ली में पीएम मोदी, अमित शाह और जेपी नड्डा के साथ एक बैठक की थी और उस बैठक के तीन दिन बाद वो लखनऊ पहुंचे थे, जहां उन्हें एक दिन रूकना था. लेकिन, योगी से ना मिल पाने के कारण उन्हें अलगे दिन भी रूकना पड़ा और फिर बिना मिले ही लखनऊ से वापस लौटना पड़ा.

योगी आदित्यनाथ ने केंद्रीय नेतृत्व को साफ तौर पर संकेत दे दिए हैं कि वो ना तो शिवराज सिंह चौहान हैं, जो झुक जाएं और ना ही वो त्रिवेंद्र सिंह रावत हैं, जिन्हें आसानी से हटा दिया जाए. इस पूरे घटनाक्रम के बाद योगी और मोदी की मुलाकात तो हुई और प्रदेश में सब कुछ सही है ऐसा कहा गया, लेकिन पहले केशव प्रसाद मौर्य और उसके बाद स्वामी प्रसाद मौर्य ने मीडिया में बयान दिए कि मुख्यमंत्री कौन होगा, इसका फैसला केंद्रीय नेतृत्व तय करेगा.

इसी बीच पीएम मोदी के विश्वासमत रहे पी. के. मिश्रा, जो रिटारमेंट से कुछ दिनों पहले इस्तीफा देकर यूपी भेजे गए थे, उन्हें योगी कैबिनेट में जगह तक नहीं मिली और प्रदेश बीजेपी के उपाध्यक्ष पद से संतोष करना पड़ा है. खबरें थीं कि पी. के. मिश्रा को योगी पर लगाम लगाने के लिए भेजा गया है, लेकिन योगी सीधी टक्कर में केंद्रीय नेतृत्व पर भारी पड़े.

कर्नाटक में स्थिति भी कुछ ऐसी ही है, जहां लंबे समय से एक-दूसरे को फूटी आंखे न सुहाने वाले बी.एल.संतोष और येदियुरप्पा एक बार फिर अपने-अपने गुटों के साथ मैदान में है. राज्य में रह-रहकर नेतृत्तव परिवर्तन की चर्चाएं उठती रहती हैं जो बीते दिनों एक बार फिर उठीं थी, जिसे खुद येदि ने खारिज किया. येदियुरप्पा ने साफ कहा कि जिस दिन उन्हें पार्टी हाईकमान इस्तीफा देने के लिए कहेगा, वो इस्तीफा दे देंगे, लेकिन तब तक वो ही मुख्यमंत्री रहेंगे. बीते सप्ताह पार्टी महासचिव अरुण सिंह कर्नाटक के दौरे पर थे, जहां येदि गुट के विधायकों ने उनसे मुलाकात की और बी.एल.संतोष गुट के वो विधायक जो लगातार मुख्यमंत्री के खिलाफ बोलते रहे हैं, उनके खिलाफ शिकायत कर एक्शन लेने की मांग की है. इसी तरह का एक लेटर, जिसे अंग्रेजी में लिखा गया है, मोदी और अमित शाह को भी भेजा गया है.

उत्तराखण्ड में अगले साल विधानसभा के चुनाव होने हैं और उससे पहले केंद्रीय नेतृत्व ने राज्य में मुख्यमंत्री को बदल दिया. त्रिवेंद्र सिंह रावत को हटाकर तीरथ सिंह रावत को मुख्यमंत्री बना दिया गया. हालांकि, त्रिवेंद्र सिंह रावत के खिलाफ बीजेपी विधायकों की नाराजगी और भारी असंतोष के चलते यह फैसला लिया गया था. लेकिन, त्रिवेंद्र सिंह रावत ने अब बदला लेने का फैसला कर लिया है. कोरोना वायरस की दूसरी लहर के बीच कुंभ के आयोजन से स्थिति और खराब हुई. वहीं अब ऐसी रिपोर्ट सामने आ रही हैं कि कुंभ के आयोजन के दौरान फर्जी टेस्टिंग हुई. कई वैज्ञानिक कुंभ के आयोजन को सुपर स्प्रैडर मानते हैं. पूर्व मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत लगातार इस तरह के आरोप लगा रहे हैं कि उन्होंने कुंभ के आयोजन के लिए हामी नहीं भरी थी और इसीलिए उन्हें हटाया गया. ऐसा करके वो बीजेपी के केंद्रीय नेतृत्व को, जो कोरोना की दूसरी लहर के दौरान चुनावों के चलते, कोरोना को हल्के में लेने के आरोपों को झेल रहा है, उसे और बल दे रहे हैं.

बीजेपी के अंदर बढ़ता असंतोष सिर्फ उन राज्यों में ही नहीं देखने को मिल रहा है जहां पार्टी सत्ता में है, बल्कि उन राज्यों में भी देखने को मिला रहा है जहां पार्टी विपक्ष में है. उदारहण के तौर पर बात अगर राजस्थान की करें तो वहां पर वसुंधरा राजे को हटाने के लिए पार्टी ने पहले राज्यवर्धन सिंह राठौड़ पर दांव लगाया और फिर गजेंद्र शेखावत पर लेकिन राजे का राज अभी भी कायम है. वसुंधरा राजे का राज कितने दिन और कायम रहेगा, यह तो समय बताएगा, लेकिन राजे ता नो पहले मोदी और अमित शाह के सामने झुंकी है और ना ही आगे झुकती हुई प्रतित होती है.

वहीं बात अगर बंगाल की करें तो वहां हालात और अधिक खराब है. मुकुल रॉय बीजेपी छोड़कर टीएमसी में बड़े आसानी से चले गए. मुकुल के बीजेपी छोड़ने से ऐसा लगा कि केंद्रीय नेतृत्व ने उन्हें रोकने की कोशिश ही नहीं कि और उन्हें जाने दिया गया. इसके बाद टीएमसी लगातार ऐसे दांवे कर रही हैं कि उसके संपर्क में बीजेपी के और विधायक हैं, लेकिन पार्टी उस स्तर पर टीएमसी को जवाब नहीं दे रही है.

इसके अलावा कोरोना की दूसरी लहर के दौरान जिस तरह से ट्वीटर पर पीएम मोदी से फॉलोबैक पाने वाले आगरा के रहने अमित जायसवाल ने पीएम से मदद मांगी और उन्हें मदद नहीं मिली और को काल के गाल में समा गए, इससे बीजेपी के कार्यकर्ताओं और वोटरों के बीच ऐसा मैसेज गया कि मोदी और शाह की जोड़ी को किसी की कोई परवाह ही नहीं है. बंगाल विधानसभा चुनावों के बाद हुई हिंसा के बाद इन बातों को और मजबूती मिली और ट्वीटर पर लगातार ऐसे कमेंट देखे गए कि मोदी ने वोट लेकर लोगों को मरने के लिए छोड़ दिया है.

मोदी और अमित शाह के लिए चिंता की बात एक और है. अमित शाह ने राज्यों में ऐसे नेताओं को तवज्जों दी जो मोदी और उनके भरोसेमंद थे और समय पड़ने पर उनके काम आ सकें. फिर बात चाहे हरियाणा में गैर-जाट मनोहर लाल खट्टर को मुख्यमंत्री बनाना हो या फिर महाराष्ट्र में देवेंद्र फडणवीस को मौका देना. देवेंद्र फडणवीस को छोड़कर कोई भी नेता अपने आप को मजबूत करने में सफल नहीं हो पाया. वहीं फडणवीस जो सफल हुए उन्होंने भी खुद के पैर पर कुल्हारी मारी और राज्य विधानसभा के बाद मुख्यमंत्री बनने के लिए जो किया, उससे उनकी छवी बिगड़ी ही. ऐसे में इन राज्यों में जिन नेताओं को किनारे लगाकर इन्हें बढ़ाया गया था, वो भी अब रह-रहकर आवाज उठा रहे हैं.

ऐसा नहीं है कि इस जोड़ी के खिलाफ पहले कभी आवाजें नहीं उठीं. कीर्ति आजाद, शत्रुघन सिन्हा, जयवंत सिन्हा ऐसे कई नाम है. लेकिन या तो ऐसे लोगों को पार्टी में किनारे लगा दिया गया या फिर उन्हें पार्टी ही छोड़नी पड़ी. यह जोड़ी कभी झुकी नहीं है, लेकिन जिस तरह से योगी ने अपने तेवर दिखाएं हैं और बाकी राज्यों में यही कहानी दोहराई जा रही है, उससे तो ऐसा लगता है कि नरेंद्र मोदी और अमित शाह की पकड़ बीजेपी पर कमजोर जरूर हो रही है.

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जब कराची से आए एक विमान ने पश्चिम बंगाल में गिराए थे भारी मात्रा में हथियार, आज तक है रहस्य

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किसी देश में कोई विदेशी विमान आए और भारी मात्रा में जानलेवा हथियार गिराकर चला जाए और इसका पता किसी को ना चले कि आखिर ऐसा क्यों हुआ था और किसके इशारों पर हुआ था..यह सोचना भी अपने आप में काफी हैरानी वाला मामला है. लेकिन साल 1995 में पश्चिम बंगाल में ऐसी घटना हुई थी..जब एक विमान जो कराची से वाराणसी आया और भी पश्चिम बंगाल के लिए बढ़ा और रास्ते में उसने भारी मात्रा में जानवेला हथियार गिराए और चला गया. लेकिन उससे भी हैरान कर देने वाली बात यह है कि आज तक इस घटना को लेकर कोई पुख्ता जानकारी नहीं है कि आखिरी यह हथियार गिराए क्यों गए थे..

जब पुरूलिया में हुई हथियारों की बारिश

दिसंबर 1995 में रूस का एक कार्गो विमान, जिसे बुलगारिया से खरीदा गया था, वो बुलगारिया से होता हुआ टर्की, ईरान और फिर पाकिस्तान पहुंचा. पाकिस्तान के कराची से होते हुए इसने भारती वायु सीमा क्षेत्र में प्रवेश किया और वाराणसी पहुंचा और फिर वहां आठ घंटे रूकने के बाद ईधन भरवारक कोलकाता से होते हुए थाईलैंड निकल गया. लेकिन इस विमान ने रास्ते में कोलकाता में आधी रात को पैराशूटों की मदद से कुछ बक्से गिराए. पुरूलिया के झालदा, घाटंगा, बेलामू और मरमु में गिराए गए इन बक्सों में बुल्गारिया में बनी 300 एके 47 और एके 56 राइफलें, लाखों की संख्या में गोलियां, आधा दर्जन रॉकेट लांचर, हथगोले, पिस्तौलें और अंधेरे में देखने वाले उपकरण शामिल थे.

पुरूलिया में गिराए गए हथियार जितने जानलेवा थे, उतनी ही विस्फोटक यह खबर हुई. सवाल उठने लगे कि कैसे सुरक्षा एजेंसियों को इस घटना की कोई भनक नहीं लगी और कैसे कोई विमान 8 घंटे तक एक एयरपोर्ट पर रूक रहा और वो भी हथियारों से भरा हुआ और किसी को भनक तक नहीं लगी. इस घटना के चार दिन बाद यानि 21 दिसंबर को भारतीय उड्डयन अधिकारियों ने थाईलैंड से कराची जा रहे एक ‘संदिग्ध’ विमान को मुंबई के हवाई क्षेत्र में रहने के दौरान ट्रैक किया और उसे नीचे उतरने पर मजबूर कर दिया. इस जहाज के चालक दल के पूछताछ की गई तो पता चला कि पुरूलिया हथियार कांड के तार इसी जहाज से जुड़े थे. इस विमान में ब्रिटिश हथियार एजेंट पीटर ब्लीच के साथ साथ चालक दल के छह सदस्यों को गिरफ्तार करके उनके खिलाफ जांच शुरू कर दी गई. इस कांड का मुख्य आरोपी किम डेवी को माना गया, लेकिन वो बड़ी ही आश्चर्यजनक रूप से हवाई अड्डे से बच निकला और अपने देश डेनमार्क भाग गया.

पुरूलिया कांड के पीछे असल वजह आखिर क्या थी ?

पुरूलिया कांड के पीछे की असल वजह क्या थी, यह कभी सामने नहीं आई. इस घटना को लेकर कई कहानियां सामने आई. जांच एजेंसियों ने अपने तर्क दिए और किम डेवी जो मुख्या आरोपी था उसने अपने दावे किए..लेकिन सच्चाई का आज तक किसी को पता नहीं चला.

सीबीआई की थ्योरी

सीबीआई ने इस मामले की जांच की थी. सीबीआई ने जो चार्जशीट बनाई थी..उसमें उन्होंने पुरूलिया कांड के लिए बंगाल के धार्मिक-आध्यात्मिक संगठन आनंद मार्ग को दोषी माना था. सीबीआई ने तर्क दिया था कि आनंद मार्ग का वामपंथ के साथ टकराव था और दोनों के बीच अक्सर खूनी संघर्ष होता था. सीबीआई ने अपनी थ्योरी में बताया कि आनंद मार्ग इन हथियारों की मदद से राज्य सरकार के खिलाफ विद्रोह करना चाहता था. सीबीआई ने यह भी दावा किया कि ब्रिटिश हथियार एजेंट पीटर ब्लीच ने हथियारों की जो मात्रा बताई थी..उसके मुकाबले काफी कम ही हथियार बरामद हुए थे. आनंद मार्ग का मुख्यालय पास में ही थी और संगठन के लोग काफी हथियारों को आनंद मार्ग के मुख्यालय में लेकर जा चुके थे. सीबीआई ने अपने तर्क को मजबूती देने के लिए यह भी दावा किया कि घटना का मास्टरमाइंड किम डेवी खुद एक आनंद मार्गी था. इस घटना में शामिल सभी लोगों को उम्रकैद की सजा हुई थी..लेकिन बाद में भारत सरकार ने सबको बरी कर दिया था.

किम डेवी का दावा

वहीं किम डेवी ने साल 2011 में टाइम्स नाऊ को दिए अपने इंटरव्यू में दावा किया था कि पुरुलिया में भारत सरकार के इशारों पर हथियार गिराए गए थे. किम ने दावा किया था कि तत्तकालीन केंद्र की कांग्रेस सरकार पश्चिम बंगाल की सत्ताधारी कम्युनिस्ट सरकार को अस्थिर करना चाहती थी. प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव की सरकार उस दौरान बंगाल में वामपंथी कैडर की हिंसा का जवाब हिंसा से देना चाहती थी और इसलिए उसने ब्रिटिश खुफिया एजेंसी एमआई-5 के साथ मिल कर एक योजना बनाई कि विदेशी से हथियारों को लाकर स्थानीय नागरिकों को दी जाए..जिससे वो सरकार के खिलाफ विद्रोह छेड़ सके. किम डेवी ने दावा किया था कि हथियार गिराने का स्थान, समय और उससे जुड़ी सभी बातें पहले से निर्धारित थीं और भारतीय सुरक्षा एजेंसी रॉ को इसकी पूरी जानकारी थी. हालांकि, सीबीआई ने किम के दावों को अलगे दिन ही सीरे से खारिज कर दिया था.

वहीं कुछ लोगों का यह भी मानना है कि यह हथियार गलती से पुरूलिया में गिराए गए थे और असल में इन्हें बांग्लादेश में गिराना था, जिसका इस्तेमाल उग्रवादी गुट करने वाले थे. हालांकि, आज तक यह पुख्ता तौर पर साबित नहीं हो पाया कि इन हथियारों को क्यों गिराया गया था और इनका किस इस्तेमाल के लिए. इस हथियारों का इस्तेमाल बाद में नक्सलियों करे खिलाफ जंग में किया गया.

पीएम मोदी सवालों का सामना करने से इतना डरते क्यों हैं

PM MODI ने कड़ी मेहनत करने के बाद अपनी जो छवि बनाई है वो तभी तक बनी रहेगी जब तो वो सवालों से भागते रहेंगे. क्योंकि जब उनसे कठिन सवाल पूछें जाएंगे तो जाहिर तौर पर वो बगले झाकने लगेंगे. और ऐसा होते ही उनकी बनी बनाई छवि खराब हो जाएगी.

कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी कई बार कई मंचों पर इस बात को दोहरा चुके हैं कि प्रधानमंत्री मोदी डरपोक है. कांग्रेस अध्यक्ष ने कहा था कि  पीएम मोदी प्रेस काफ्रेंस करने से डरते है. कांग्रेस अध्यक्ष ने जब 2019 लोकसभा चुवानों के लिए पार्टी का मेनिफेस्टो रिलीज किया था, उस दौरान भी उन्होंने इसी बात को एक बार पुन: दोहराया था।

साल 2012 के अंत से ही नरेंद्र मोदी को पीएम पद का दावेदार माना जाने लगा था. उस दौरान मोदी लगातार पत्रकारों के सवालों का सामना करते थे. फिर मोदी के पीएम बनने के बाद ऐसा क्या हुआ कि वो प्रेस कांफ्रेस करने से बचने लगे.

इस सवाल का जवाब जानने के लिए यह जानना जरूरी है, कि पीएम मोदी की कार्यशैली मोदी के पीएम पद की दावेदारी से लेकर बतौर पीएम उनके पांच सालों के कार्यकाल को गौर करे, तो मोदी को ऐसे नेता के तौर पर पेश किया गया है कि मोदी के पास देश की सभी समस्याओं का इलाज है. ‘मोदी है तो मुमकीन है’ बीजेपी का यह नारा इसी को सत्यापित भी करता है.

पीएम मोदी की छवि एक ऐसे नेता के तौर पर बनाने की कोशिश की गई है, जिसमें वो आजादी के बाद से 2019 तक जितने भी प्रधानमंत्री बने, उसमें सभी प्रधानमंत्रियों में मोदी का कद सबसे बड़े दिखे. कहानी यहीं खत्म हो जाती तो बात कुछ ओर होती. लेकिन मोदी की छवि को ऐसा बानाया जा रहा है जिसमें किसी भी व्यक्ति को यह लगे कि मोदी ने पीएम बनकर देश का उद्धार किया है.

पीएम मोदी की छवी एक ऐसे नेता की छवी के तौर पर उकेरी जा रही है जो कुछ भी कर सकते है. जिसके पास इस अनंत ब्रह्मांड की किसी भी समस्या का समाधान है. पीएम मोदी की ऐसी छवि बनाकर यह दर्शाने की कोशिश की जा रही कि वो पीएम पद से ऊपर हैं.

ऐसा नहीं है कि प्रधानमंत्री बनने के बाद उन्होंने किसी पत्रकार के साथ साक्षात्कार नहीं किया हो. मोदी ने कई बार साक्षात्कार किया है. लेकिन जो मोदी का साक्षात्कार लेता है और वो पत्रकार जो सवाल पूछता है वो सभी मोदी ही तय करते है. यानि मोदी की छवी को यहां भी नुकसान नहीं पहुंचता है.

स्टार्टअप योजना, स्किल योजना, नोटबंदी, जीएसटी, रोजगार, किसान इन मुद्दों पर मोदी बहुत कम बोलते है. इन योजनाओं को लागू करने के कुछ दिनों तक तो मोदी इन योजनाओं के बारे में ऐसा बोलते थे, मानों इस संसार में इन योजनाओं के बारे में उनसे ज्यादा कोई जानता नहीं हो. लेकिन अब मोदी इन योजनाओं का कभी जिक्र भी नहीं करते है.

मोदी ने कड़ी मेहनत करने के बाद अपनी जो छवि बनाई है वो तभी तक बनी रहेगी जब तो वो सवालों से भागते रहेंगे. क्योंकि जब उनसे कठिन सवाल पूछें जाएंगे तो जाहिर तौर पर वो बगले झाकने लगेंगे. और ऐसा होते ही उनकी बनी बनाई छवि खराब हो जाएगी.

चरसी बाबा

आरक्षण व्यवस्था को खत्म करने के लिए सुप्रीम कोर्ट का सहारा ले रही हैं मोदी सरकार ?

2014 के आम चुनावों में नरेंद्र मोदी का नारा था ‘अच्छे दिन आएंगे’. बीजेपी को मोदी के चेहरे के दम पर प्रचंड बहुमत मिला. बीजेपी और उसकी सहयोगी दलों को 300 से अधिक सीटों मिली थी. बीजेपी अकेले अपने दम पर सरकार बनाने में सफल हुई थी.

मोदी सरकार बनने के बाद सबसे ज्यादा किसी को खुशी थी तो वह थे ‘आरक्षण विरोधी गुट’. आरक्षण विरोधी गुट यह कह लीजिए संघ की वह शाखा जो दलितों को उनके अधिकार देना नहीं चाहती. इस गुट का मानना है कि आरक्षण संविधान में समानता की भावना को खत्म करता है. और दलितों जिनपर हजारों सालो से अत्याचार होता आया है, वो कुछ सालों के आरक्षण के दम पर बहुत आगे निकल गए है.

भारत लगभग पूरे साल चुनावी मोड में ही रहता है. यानी मोदी सरकार सीधे तौर पर संसद में कोई कानून लाकर आरक्षण को खत्म करने का जोखिम नहीं उठा सकती थी. अगर सरकार ऐसा करती तो यह संविधान की मूल भावना के साथ खिलवाड़ होता है जो कोर्ट में नहीं टीकता. वहीं ऐसा होने से दलित अपने अधिकार के लिए सड़कों पर आते जिससे एक अराजकता की स्थिति उत्पन्न हो सकती थी. दूसरा बीजेपी की राजनीति भी समाप्त हो सकती थी.

तो तमाम परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए मोदी सरकार और आरक्षण विरोधी गुट ने एक मीटिंग करी और तय किया कि एक एजेंडे के तहत इसे बढ़ाया जाएगा जिसमें सरकार आरक्षण को तो बरकरार रखेगी लेकिन जिस व्यवस्था के तहत आरक्षण दिया जाता है उसे खत्म कर दिया जाएगा. तो ऐसे में साप भी मर जाएगा और लाठी भी नहीं टूटेगी.

एक चरसी के बोल

सुप्रीम कोर्ट ने एससी एसटी एट्रोसिटी एक्ट पर एक फैसला दिया और इस एक्ट के तहत तत्काल गिरफ्तारी के प्रावधान पर रोक लगा दिया. दलित संगठनों ने सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले का विरोध किया, विरोध के चलते केंद्र सरकार दबाव में आई और वह सदन में एक कानून लेकर आई जिसके बाद सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलट दिया गया.

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बीते दिनों सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले को आगे बढ़ाते हुए कहा कि, यूनिवर्सिटी में जो नियुक्तियां होंगी, वह विभाग को इकाई मानकर की जाएगी. पहले जो नियुक्ति होती थी वह संस्थान को इकाई मानकर की जाती थी. सुप्रीम कोर्ट के फैसले से हुआ यह कि, इऩ नियुक्तियां में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और ओबीसी इन लोगों की भागीदारी कम होती चली गई. दलित संगठनों ने इसका कई दिनों तक विरोध किया और अब खबर आ रही है कि सरकार एक अध्यादेश लाकर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटेगी.

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आरएसएस की हमेशा से एक मांग रही है कि, देश में आरक्षण व्यवस्था आर्थिक आधार पर होनी चाहिए ना की जाति आधार पर. वह इसी एजेंडे को हर बार आगे बढ़ाने की कोशिश करते हैं. बिहार विधानसभा चुनावों के दौरान भी संघ प्रमुख ने यही कहा था, इसी व्यवस्था को आगे बढ़ाने की बात करी थी. लेकिन लालू की राजनीति के आगे मोदी एक संघ की एक न चली. उसके बाद मोदी सरकार ने बीते दिनों ही आर्थिक आधार पर आरक्षण दिया है.

क्रिकेट कमेंटेटर उसे के मुंह से अपने एक बात जरूर सुनी होगी, you miss I hit. मतलब है आप चुके और मैंने पत्ता साफ किया. मोदी सरकार भी यही कर रही है. सुप्रीम कोर्ट के कंधे पर बंदूक रखकर मोदी सरकार आरक्षण व्यवस्था पर गोली चला रही है और उसे खत्म करने की पूरी कोशिश कर रही है.

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सुप्रीम कोर्ट के फैसला क्या होता है, और कोर्ट के उस फैसले पर दलित संगठनों का रुख किया है. मोदी सरकार बस इसी के बीच अपनी राजनीति कर रही है. यानी अगर आने वाले दिनों में कोर्ट आरक्षण व्यवस्था से संबंधित किसी मामले पर कोई फैसला देता है और दलित संगठन समझ नहीं पाते, की कोर्ट का फैसला आरक्षण खत्म करने की तरफ बढ़ाया गया कदम है, तो मोदी सरकार उस पर कोई अध्यादेश नहीं लाएगी.